Saturday, August 14, 2010

दूसरी ग़ुलामी के 63 वर्ष

बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं कि जिस चीज के लिए आपको मेहनत या संघर्ष नहीं करना पड़े उसकी कीमत आप नहीं समझते। इस बात को वो भारत नाम की इस भौगोलिक इकाई को राजनीतिक स्वशासन की प्राप्ति पर भी लागू करते रहे हैं। और हमारी तीन पीढ़ियाँ इसी तर्क के आधार पर आज़ादी के इस उपहार को ढ़ोती

रही हैं। इस कथित आज़ादी के बारे में हमारी समझ शुरुआत में स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठों, हर वर्ष 15 अगस्त को होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों, प्रभात फेरियों और रेडियो पर बजने वाले देशभक्ति के गीतों से बनी थी। दिलचस्प है कि आज भी जब मैं यह सब लिख रही हूँ तो एक सरकारी रेडियो पर लगातार वही सारे गीत बजाए जा रहे हैं जो मैं पिछले 20 से अधिक वर्षों से सुनती आ रही हूँ। अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं... इत्यादि। मुझे याद आता है श्रीलाल शुक्ल ने अपने एक व्यंग्य लेख में सरकारी रेडियो के ऐसे प्रयासों को जॉर्ज ऑरवेल की शब्दावली में प्रोलफीड की संज्ञा दी थी।

सो जब मैं थोड़ी बड़ी हुई तो पाठ्यपुस्तक में परोसी गई समाज की चित्रावली और मेरे आस-पास के सामाजिक यथार्थ के बीच के एक बड़े अंतर को कुछ-कुछ महसूस करने लगी। मुझे लगने लगा कि इन हरियालियों के बीच सब कुछ हरा-हरा नहीं है। राष्ट्र-निर्माण के एजेंडे का अर्थ यह व्यवस्था यदि अपने बच्चों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंधेरे में रखने और देशभक्ति के खोखले नारों और गीतों को पिलाने से लेती है तो उस राष्ट्र और समाज का भविष्य समझा जा सकता है।

बचपन से भारत देश पर लिखाए गए हर निबंध में हमारे शिक्षक लिखाते आए कि भारत गाँवों का देश है। उन शिक्षकों के प्रति यथोचित सम्मान के साथ आज कहना पड़ रहा है कि सरकारी कर्मचारी होने की बाध्यताओं से इतर यदि उनके अंदर अपने स्वयं की परिस्थितियों के प्रति थोड़ी सी भी जागरुकता या आत्मचेतना थी तो उन्हें अपने बच्चों को यह अवश्य बताना चाहिए था कि भारत एक गाँवों का देश है और इन गाँवों पर अंग्रेजों के रहते और उनके जाने के बाद भी ग्रामीण अभिजन और शहरी उच्च-मध्यवर्ग शासन और शोषण करते आए हैं। गाँधीजी ने सच ही कहा था कि गोरे शासकों के जाने के बाद भूरे साहिब (ब्राउन साहिब्स) इस देश पर शासन करेंगे। एक प्रकार के शोषणकर्त्ताओं ने दूसरे प्रकार के शोषणकर्त्ताओं को सत्ता हस्तांतरित कर दिया और हम प्रोलफीड खा-खा कर इस मुग़ालते में रहे कि हमें आज़ादी मिल गई। वाह रे आज़ादी! जरा जानें तो किसकी आजादी, किन मायनों में आज़ादी!

महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता घोषित करने वाले और राजघाट को टूरिस्ट डेस्टिनेशन के रूप में विकसित करने वाले लोग गाँधीजी के हत्यारों से भी ज़्यादा खतरनाक निकले क्योंकि वे गाँधी के नाम पर सड़कों, मैदानों और विश्वविद्यालयों का नामकरण तो करते रहे, लेकिन इसकी आड़ में गाँधी के असल संदेशों और आदर्शों का गला घोंटते रहे। एक पार्टी ने गाँधी की विरासत को हथिया कर देश को लूटने की और एक परिवार ने तो गाँधी का उपनाम धारण कर देश पर लगातार शासन करने की असंदिग्ध वैधिकता अथवा अनक्वेशचंड लेजिटिमेसी ही प्राप्त कर ली है।

कुछ अन्य तरह के लोग भी राजनीति में उभर कर आए। उन्होंने संस्कृति के नाम पर जाति और धर्म की अफीम लोगों को पिला-पिला कर बैलट पेपर पर ठप्पा लगवाने का धंधा शुरु किया। शुरु में लगा कि सत्ता के ये नए दावेदार पुरानी शोषण व्यवस्था को चुनौती देकर वास्तव में सामाजिक न्याय की स्थापना करेंगे। लेकिन धीरे-धीरे एहसास हुआ कि ये भी उसी शोषण में शरीक हैं। इनका भी राष्ट्रवाद भारत माता की जय या अमुक महापुरुष की जय के बहरा कर देनेवाले उदघोष तक सीमित है और एक-दूसरे के बीच घृणा पैदा करने के नींव पर ही टिका है।

भारत का ज़्यादातर हिस्सा आज भी ग़ुलाम ही रहा। सामाजिक विभाजन और आर्थिक असमानता के कारकों को और अधिक स्थापित किया जाता रहा। मसलन शिक्षा की व्यवस्था को ही देखिए। पुराने ज़मींदारों और रैयतों का स्थान आज रीयल स्टेट का धंधा करने वालों और एसईजेड के नाम पर अंग्रेजों से भी अधिक क्रूर तरीके से जबरन ग्रामीणों से ज़मीन छीनने और हड़पने वालों ने ले लिया है। वाह रे आज़ादी।

जिस पुलिस व्यवस्था की स्थापना अंग्रेजों ने अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए किया था उसी औपनिवेशिक पुलिस प्रणाली को ज्यों का त्यों कायम रखा गया ताकि नए सत्ताधारी-शोषक ताकत का इस्तेमाल और पुलिसिया भय का माहौल पैदा करके आम नागरिकों पर काबिज रहें। आज इस देश का आम नागरिक पुलिस के पास जाने से डरता है क्योंकि हरिशंकर परसाई के इन्सपेक्टर मातादीन के सिद्धांत के तहत कहीं उसे ही फँसा कर उसी से कुछ ऐंठ न लिया जाए।

आज न्याय व्यवस्था पर से इस देश के ग़रीबों और विशेषकर ग्रामीणों का विश्वास उठता जा रहा है। हमारे प्रदेश बिहार में माफिया राज की उत्पत्ति का एक कारण यह भी रहा कि लोग न्याय के लिए पुलिस, प्रशासन या न्यायालय जाने की बजाए त्वरित और मान्य न्याय के लिए इनकी शरण में जाने लगे। यहाँ के गरीब ग्रामीणों को न तो सरकारी भाषा की समझ है और न ही इतना पैसा है कि वे न्याय खरीद सकें। पुलिस और वकील मिलकर इन्हें डेट-दर-डेट अबाध रूप से शोषण करते जाते हैं और ये अज्ञानी न्याय की आस में अपना सब कुछ बेचकर भी इनके फंदे में फँसते जाते हैं। गु़लामी किसको कहते हैं? यह तो बात हुई नीचे के स्तर की न्यायपालिका की। न्यायिक भ्रष्टाचार की यह श्रृंखला ऊपर के स्तरों तक और गहरी होती जाती है। ऊपर के न्यायालयों में भ्रष्टाचार की बात आए दिन हर भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश अपने रिटायरमेंट की पूर्वसंध्या पर स्वीकारते हैं, लेकिन इससे पूर्व और उसके बाद के भी उनके संदिग्ध कैरियर और सच्चरित्रता पर कोई सवाल नहीं कर सकता क्योंकि अवमानना की तलवार लटकती रहती है। ऐसा लगता है मानों वे लोकतांत्रिक व्यवस्था में निहित चेक और बैलेंस के सिद्धांत से एक तरह की इम्यूनिटी एन्ज्वाय कर रहे हैं।

अब नौकरशाही की बात करते हैं। विडंबना देखिए कि इन्हें सिविल सर्वेंट यानि नागरिकों का सेवक कहा जाता है। लेकिन असल में ये अप्रत्यक्ष रूप से नागरिकों के शासक हैं। संविधान ने राजनीतिक प्रतिनिधियों को इन पर अंकुश रखने का अधिकार दिया था, लेकिन राजनीतक वर्ग और नौकरशाही दोनों आपस में साँठगाठपूर्ण गठबंधन स्थापित कर लूट में हिस्सेदार हो गए। गाहे-बगाहे दिखावे के लिए या दलगत नफ़ा-नुकसान के आधार पर इसपर उंगली भी उठाते रहते हैं लेकिन असल पर एक-दूसरे पर इनकी निर्भरता इस कदर स्थापित हो चुकी है कि राजनीतिक वर्ग इनपर लगाम कसने का नैतिक अधिकार भी खो चुकी लगती है। ऐसा इसलिए भी है कि इस वर्ग का अब जनता से सीधा संपर्क नहीं रहा है। आज जिला प्रशासन से लेकर ब्लॉक और अंचल स्तर तक के अधिकारी अपने-अपने स्तर के राजनीतिक प्रतिनिधी को कुछ नहीं समझते क्योंकि इनपर किसी तरह का अंकुश नहीं है। खासकर पंचायती राज संस्थानों के प्रतिनिधियों को तो ये कुछ समझते ही नहीं। इन घूसखोरों को हर ग्रामीण भी घूसखोर और इन्हीं की तरह भ्रष्ट नज़र आता है इसलिए यह इनपर भी रिश्वत देने का दबाव डालना अपना नैतिक अधिकार समझते हैं।

नागरिक प्रशासन तो नागरिक प्रशासन, जिस सैनिक प्रशासन की वीरगाथा अब तक कवि प्रदीप और लता दीदी की ऐ मेरे वतन के लोगों को सुनकर रोमांचित हो जाते थे और आँख में आँसू आ जाते थे, उसमें इतने ऊँचे स्तर पर इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आ रहे हैं जिसे देखकर लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं जब हमारा भी हाल अपने उन पड़ोसी देशों वाला हो जाए जहाँ इस व्यवस्था ने एक समानांतर शक्ति संरचना पैदा कर दी है और जिसे हमारे कूटनीतिज्ञ और राजनीतिक नेतृत्व आए दिन कोसते रहते हैं।

कुल मिलाकर ऐसा लगता है मानो इस देश में ऊपर के स्तर पर एक छोटे अंग्रेजीभाषी वर्ग ने सेना, प्रशासन, न्यायपालिका, कॉरपोरेट, कॉरपोरेट मीडिया और राजनीतिक नेतृत्व को मुट्ठी में लेकर एक नए प्रकार के कुलीनतंत्र या अल्पतंत्र की तरह से देश को अपने शिकंजे में कस रखा है। जनमानस और जनमत को प्रभावित करने या सतही स्तर पर उनकी सहमति हासिल करने के तमाम संवैधानिक औऱ असंवैधानिक उपकरण और हथकंडे उनके पास मौज़ूद हैं। विरोध के स्वरों को को-ऑप्शन, धमकी, भयादोहन या फिर ताकत के नंगे इस्तेमाल के ज़रिए दबा दिया जाता है। विमर्श के मुद्दे तक यही तय करते हैं और पक्ष-विपक्ष के तर्क भी। इनके पास एक भाषा, देहभाषा और अंदाज़ है जिसके ज़रिए ये अपने किसी भी कृत्य को रेशनलाइज़ कर सकते हैं अथवा उसका औचित्य साबित कर साफ बच निकल सकते हैं। इन पर किसी का अंकुश नहीं। एक निरंकुश वर्ग है यह।

इसी गरिमामयी भारत भूमि का अकूत प्राकृतिक संसाधन कौड़ियों के मोल भ्रष्ट खनन व्यवसायियों और उद्योगपतियों को बेचा जा रहा है और इनके इस लूट में इसी भारत माता की जय कहने वाले भी हिस्सेदार हैं। और हम अभिभूत होकर इनके जय-जयकार में स्वर मिलाते हैं। आज़ादी का असल मर्म समझने, इसे आत्मसात कर इसके लिए संघर्ष करने की बजाए हमने आज़ादी को परिभाषित करने, प्रचारित करने और इसे अंधदेशभक्ति से जोड़ने की छूट इस व्यापार की कमाई खाने वालों पर छोड़ दिया। इन मुँह में दूब खोंसे भेड़ियों और रंगे सियारों के नारों में खोकर हम भी भेड़ों की भाँति खोखली आज़ादी का जयकारा करते रहे हैं।

कश्मीर, दंडकारण्य, उत्तर-पूर्व, मुंबई और मेरठ में हो रही हिंसक अभिव्यक्तियाँ हमें दिखाईं पड़ती है इसलिए हम इस पर चर्चा भी करते हैं। यह बात दीगर है कि हमारी सरकारें इससे भी सीख नहीं लेती। इन बेचैनियों के पीछे के कारणों को समझने तक का प्रयत्न नहीं करती, इसके लिए दूरगामी कदम उठाने की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है। शहरों के शीशमहलों में ग़रीबी पर बहस करने वाले जिन एलीट को इस देश की ग़रीबी की भयावहता का पता अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में अफ्रीका से तुलना किए जाने के बाद चलता है, उनको अपनी निश्चिंतता से उबरकर यह जान लेना चाहिए कि इन भुखमरों की लाश खाने के लिए अब गाँवों में गिद्ध भी नहीं बचे हैं और इनकी सड़ांध्र महानगरों की किलाबंद अट्टालिकाओं तक भी आज नहीं तो कल पहुँचेगी ही।

आइये भारत की दूसरी ग़ुलामी के 63वीं वर्षगाँठ पर अपना मौन और अपनी मानसिक ग़ुलामी भी तोड़ने का प्रण करें। भारत माता की जय हो, इसके मौज़ूदा भाग्य विधाताओं की क्षय हो।