प्रेमचंद के उपन्यास प्रतिज्ञा को दोबारा पढ़ते हुए ग्रामीण जीवन में विधवाओं की स्थिति अचानक से आँखों के सामने तैर गई। ग्रामीण विकास नाम के विषय में विधवाओं की समस्या को अलग से शामिल न करना उनके प्रति हमारे समाज विज्ञानियों की उदासीनता या संवेदनहीनता ही दिखाता है। ठीक है आपने सामाजिक सुरक्षा अथवा सोशल सिक्योरिटी पर बहस करते हुए इसमें विधवाओं पर भी दो शब्द लिख दिए और उन्हें सरकारी खजाने से चंद रुपये की व्यवस्था का ढिंढोरा भी पीट दिया, लेकिन असल मुद्दा है समाज और परिवार के भीतर उनकी स्थिति और उनके मानाधिकार (डिग्निटी) का।
मैंने बचपन से लेकर आज तक अपने गाँव में जिन विधवाओं के जीवन को करीब से देखा और जाना है उससे उनके बारे में जो तस्वीर मेरे मन में उभरती है उसपर आज आप लोगों से चर्चा कर रही हूँ। गाँवों में आप किसी भी महिला को बस देखकर यह तय कर सकते हैं कि वह विधवा है या सधवा। वह सफेद साड़ी या धोती पहने होगी। चेहरे पर एक गहरी उदासी और आँखों में गहराई तक दुःख झलकता होगा। बाल आम तौर पर बिखरे या किसी भी तरह से से समेटे गए होंगे। उसके पूरे व्यक्तित्व के प्रति यदि कोई एक भावना तत्काल आपके मन में उत्पन्न होगी तो वह है दया या सहानुभूति। लेकिन ऐसा हमेशा किसी अनजानी विधवा के प्रति ही होता है। गाँवों में अपने परिवार या अपने समाज की विधवाओं के प्रति अगर ऐसा होता तो शायद आज उनकी स्थिति ऐसी नहीं होती।
किसी स्त्री का पति मरा नहीं कि समाज और परिवार के सदस्यों का उनके प्रति रवैया बदल जाता है। वैसे तो किसी भी अपने के गुजर जाने पर हमारे जीवन में खालीपन आता है, दुःख होता है। लेकिन यहाँ स्थिति भिन्न है। व्यक्तिगत रूप से स्त्री पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ना या भावनात्मक आघात पहुँचना एक बात है लेकिन सामाजि
क रूप से जिस अलगाव भरे जीवन की शुरुआत इसके बाद होती है उसे देख कर लगता है कि एक तरफ हम सभ्यतर होते जाने का दंभ भरते हैं और दूसरी तरफ ऐसी रुढ़िवादी सोच।
विधवा होते ही स्त्री का जीवन बिल्कुल बदल जाता है। ज्यादातर बदलाव थोपे या लादे गए होते हैं। या फिर ऐसा भी होता है कि सामाजिक मान्यताएँ बचपन से ही स्त्रियों के भीतर इस कदर समाहित कर दी गई होती है कि वह स्वतः प्रेरणा से ही इसे अपनी नियति मानते हुए ऐसे बदलावों में स्वयं को ढ़ालने का प्रयास करने लगती है। आगे का उनका पूरा जीवन इन्हीं बदलावों की बेड़ियों में खुद को जकड़ने की आत्मसहमति के साथ गुजरता है।
अब इन बदलावों पर विचार कीजिए:
एक ग्रामीण विधवा बिना किसी कसूर के अभागिन करार दे दी जाती है। किसी भी मांगलिक अवसर पर उनकी मौज़ूदगी शुभ नहीं मानी जाती। वह उत्सव त्यौहारों में भी उल्लास के साथ भाग नहीं ले सकतीं। उत्सव और व्रत-त्यौहार बनाने वाले हमारे पूर्वजों ने भी इस बात का पूरा ध्यान रखा कि सारे व्रत-त्यौहार सुहागिनों के लिए ही बने ताकि उनका सुहाग बना रहे। एक मनुष्य के तौर पर हम सभी जानते हैं कि कोई भी हमेशा सुहागिन नहीं बनी रह सकतीं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु एक दिन निश्चित है। फिर भी आस्था और महिलाओं की पतिव्रतता के नाम पर यह सब कुछ बड़े पैमाने पर चलता है। लेकिन इस पूरे उपक्रम में विधवाओं को अनायास ही अलगाव का एहसास दिलाया जाता है।
विधवा के प्रति सबके व्यवहार से ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसके पति के मृत्यु के लिए वही जिम्मेवार है। वह किसी पुरुष से बात नहीं कर सकती। ऐसा करने पर उसके साथ कलंक जोड़ा जाएगा। उसे तामसी भोजन के नाम पर कई चीजें वर्जित कर दी जाती है। उसे अपनी आत्मा को साधने का अभ्यास करने को कहा जाता है। उसकी सारी आज़ादी छिन जाती है। उसके व्यक्तित्व की शोभा हमेशा के लिए छीन ली जाती है। वह अपना दुःख भी किसी से साझा नहीं कर पातीं। उलाहना उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाता है। जिंदगी उन्हें बोझ की तरह लगने लगता है।
वह व्यवहार की कितनी भी अच्छी हों या किसी भी कार्य में कितनी भी कुशल हों उनका सम्मान समाज और
परिवार में वह नहीं रह जाता जिनकी वो एक मनुष्य मात्र होने के नाते हक़दार होती हैं।
इसका कारण क्या है यह सोचते हुए मेरी साधारण सी बुद्धि में जो समझ आता है वो यह है कि इनमें से ज़्यादातर अत्याचार का संबंध उनके स्त्री होने से है। लेकिन ताज्जुब की बात है ज़्यादातर अन्य स्त्रियाँ भी उनके साथ ऐसे ही पेश आती हैं जबकि कल उनके साथ भी यह बीत सकता है। राँड़ गाली का इस्तेमाल महिलाएँ एक दूसरे के लिए करती
हैं जो हास्यास्पद है।उनका पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता भी एक बड़ी वज़ह है। विधवा होने के बाद उनका आर्थिक सहारा हमेशा के लिए चला गया होता है। वह परिवार पर एक अतिरिक्त बोझ की तरह हो जाती हैं। इससे उनका आगे का जीवन सम्मानपूर्वक कटना असंभव हो जाता है।
एक अन्य कारण अंधविश्वास और अज्ञानता भी है। तभी इसे मंगल-अमंगल से जोड़ कर देखा जाता है।
एक कारण विधवा विवाह की स्वीकृति न होना भी है। तभी एक बार विधवा होने के बाद उनके लिए खुशहाली का द्वार सदा के लिए बंद हो जाता है। यदि पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष अथवा ‘विधुर’ शादी कर सकते हैं तो स्त्री क्यों नहीं? क्या उनको खुशीपूर्वक जीवन जीने का अधिकार नहीं है?
ऐसा देखा गया है कि विधवाएँ प्रायः प्रोडक्टिव कार्यों में ज्यादा कुशल होती हैं। उनके लिए यदि ऐसे अवसर बनाए जाएँ तो उनका मन भी लगा रहेगा, उन्हें अलगाव का एहसास भी नहीं होगा और वह आत्मनिर्भर भी बनेंगी। ऐसे में उन्हें उनका खोया हुआ सम्मान वापस भी मिल सकता है। लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं है।
शहरी समाज का मुझे अभी इतना अनुभव नहीं है इसलिए इस समाज में उनकी स्थिति पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। ऐसा नहीं कि सभी विधवाओं की स्थिति एक सी होती है। लेकिन उपरोक्त परिस्थितियाँ कमोबेश ज्यादातर ग्रामीण विधवाओं पर लागू होता है। समाजशास्त्री इसका भी अध्ययन करें। सरकारें उनके लिए भी विशेष कार्यक्रम चलाएँ। सामाजिक और राजनीतिक नेतागण उनके प्रति व्यवहार में परिवर्तन का आह्वान करें। डेढ़-दो सौ वर्ष पूर्व भारतीय पुनर्जागरण में ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय और विवेकानंद जैसे सुधारकों ने विधवा पुनर्विवाह को एक बड़े मुहिम के रूप में चलाया था। समाज सुधार का वह एजेंडा हमारे आज के नीति निर्धारक और सामाजिक सचेता इतिहास के पन्नों में दफना चुके हैं। वर्तमान में उन्हें शायद वह दिखाई नहीं दे रहा है। हो भी क्यों वह कोई जातिगत समुदाय, वोट बैंक या कोई प्रभावशाली और शहरी समूह तो हैं नहीं। महिला आरक्षण को लेकर लड़ने वाली और महिला आयोग में बैठी हमारी बहनों का ध्यान भी इस समस्या की ओर नहीं जाता।